Saturday, February 9, 2008
एक प्रश्न
कल
सहसा चौंका गयी
मुझे तुम्हारी वो आवाज़
मेरे अंतर में
गूंजते ही रहे
तुम्हारे वे अल्फाज़
मैं दे दूं तुम्हें अपने प्राण भी
मैं दे दूं तुम्हें अपने प्राण भी
और फिर ...
हानि लाभ
की वनिक वृत्ति से
बचने के
भरसक प्रयत्न के बावजूद
ये सोचने पर
हो गया विवश
सखे
तुम्हारे प्राणों से
मुझे क्या प्रयोजन?
और प्रत्युत्तर में तुमसे
एक मूक प्रश्न किया अकारण
क्या जी सकोगे-- मेरे लिए?
No comments yet