Monday, February 18, 2008

कुछ त्रिवेणी


बरसात
उस पहले सावन की याद में
हम फिर भीगे बरसात में
जाने कितना बरसेगा 'बादल मन '
बलिश्त
अनजाना बन गया वो दोस्त मेरा
नज़रें चुराने लगा है मुझसे
बलिश्त भर प्यार क्या मांग लिया

अनपढ़
हाल -ऐ -दिल की तहरीरें चेहरे पे लिखी थी
मेरे दोस्त कर न सके तुम तर्जुमा फिर भी
जुबां -ऐ - इश्क तुम निरे अनपढ़ निकले

तजुर्बा
क्या कहें अब वो हमें पहचानते नहीं
पर आँख बचाने का हुनर हम जानते नहीं
चलो , हमारा इश्क उनके लिए तजुर्बा ही सही

बातें
सर झुका के उन्होंने होंठ अपने बुदबुदाये
मुस्कुरा कर हमने अश्क पलकों में छुपाये
कौन कहता है की हमने बातें नहीं की ?

Saturday, February 9, 2008

सपने


गुडल के फूल सी
अधखुली
लाल आंखों से
रातों को जाग कर

उँगलियों से
सपने बुने थे

रेशमी नीले सपने
सुनहरी पट्टी लगे ......

कुछ दिन
ओढ कर रखा
गुदगुदे
नर्म सपने

अब लाल आंखें
और लाल
हुई जाती हैं

देख कर......
बदरंग हुए सपने

बावरी आँखें
इतना भी
नहीं समझ पातीं.......

ज़िंदगी
उधेड़ कर
दुबारा नहीं बुनी जाती.........

एक प्रश्न


कल
सहसा चौंका गयी
मुझे तुम्हारी वो आवाज़

मेरे अंतर में
गूंजते ही रहे
तुम्हारे वे अल्फाज़

मैं दे दूं तुम्हें अपने प्राण भी
मैं दे दूं तुम्हें अपने प्राण भी

और फिर ...

हानि लाभ
की वनिक वृत्ति से
बचने के
भरसक प्रयत्न के बावजूद

ये सोचने पर
हो गया विवश

सखे
तुम्हारे प्राणों से
मुझे क्या प्रयोजन?
और प्रत्युत्तर में तुमसे
एक मूक प्रश्न किया अकारण

क्या जी सकोगे-- मेरे लिए?

Sunday, February 3, 2008